Monday, September 21, 2009

कैसे कह दें

कैसे कह दें  किसी को
प्यार कितना करते हैं उसको
जब वो सुनने को ही राजी नहीं
मनाए कैसे उसको ||


कैसे कह दें किसी को
कि जीना नहीं मुकम्मल
होगा हमारा उसके बिन
कैसे कह दें किसी को ||


जब वो समझते ही नही जज़्बात हमारे
सुनते ही नहीं फरियाद हमारे
कैसे कह दें किसी को
ये दिल के तमाम राज़ हमारे ||

-विनय 'विनोद'

Wednesday, September 16, 2009

कितना सुहाना दिन था
उससे भी सुहानी रात 
            न कोई सपने न कोई आवाज़
            बस मैं था और थी मेरी तन्हाई ||
जब उठा सुबह तो मानो
दुनिया ही हो कोई अलग-सी
            अलग-से-विचार   
            अलग-सी-कल्पनाएँ ||
न जाने क्या छिपा है
इस दिन के आँगन में
           जो भी होगा अच्छा ही होगा 
           दिन के उजाले में ||
अब तो हर सांस कुछ कहती है
जिंदगी के पंख लगा उड़ जाने को कहती है ||


-विनय 'विनोद' द्वारा रचित

Tuesday, September 15, 2009

बढ़ती आबादी

बढ़ती जनसँख्या "भारत" जैसे एक विशाल एवं विकासशील देश के लिए एक ज्वलंत समस्या बन कर उभरी है,
इससे हर व्यक्ति जीवन में किसी न किसी रूप में प्रभावित हुआ है | इसके बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठए
गए हैं -न तो व्यक्तिगत स्तर पर और नाही संस्थागत स्तर पर |
हमारे एक प्रिय मित्र ने इस विषय पर हमारा ध्यान खींचा और इसका परिणाम है ये रचना | एक व्यक्ति भी इस
रचना से अगर प्रभावित होता है तो ये इसकी सफलता होगी| और इस सफलता पर एक मुहर लग जाएगी अगर
एक भी ठोस कदम इस समस्या को समाप्त करने के प्रति उठे |
अपनी टिप्पणियों से मुझे अवश्य अनुगृहित करें ------



नित बढ़ती आबादी का बोझ
कब तक उठा पाएगी धरती
कम करो कम करो
कुछ कम तो करो ये आबादी ||

चाहे जिस ओर चले जाओ
चाहे जिस दिशा निकल जाओ
बढ़ती आबादी का ये मंजर
चला रहा पैना खंजर
कैसे भी करो कैसे भी करो
कुछ कम तो करो ये आबादी ||

सड़को पर तुम जो निकल जाओ
दुपहिया चौपहिया की आबादी
धू धू करती इनका धुंआ
खेले जन जन के जीवन से जुआ
हमें बैर नहीं इन वाहन से
पर ये जुआ तो खुद से ना खेलो
कहीं भी करो कहीं भी करो
कुछ कम तो करो ये आबादी ||

हर पल ही उलझता है मानव
जीवन की लिए नित उलझने नव
रोटी कपड़ा औ' मकान
बनके उभरी जन-जरूरतें महान
पर कब तक बोझ उठा पाएगी धरा
थक जाएगी करने को पूरा
निरंतर बढ़ती ये अभिलाषा
क्यूँ न करो तुम क्यूँ न करो
कुछ कम तो करो ये आबादी ||

चहुँ ओर मचा है हाहाकार
छाया ये कैसा अन्धकार
मानव मानव का दुश्मन है
पड़ा संसाधनों का जैसे अकाल है
आया मानो कोई भूचाल है

आई कैसी ये घनघोर बिपति
मानव न बन जाये विलुप्त प्रजाति
अरे अब तो करो अब तो करो
कुछ कम तो करो ये आबादी ||


ये मुद्दा नहीं किसी देश का
समस्या है ये समूचे विश्व का
जन जन में जगाओ चेतना
जागृत करो ये संवेदना
लेने होंगे कुछ ठोस कदम
जिससे भागे ये विपदा परम
सब मिल के करो सब मिल के करो
कुछ कम तो करो ये आबादी ||



न गरीब की ना अमीर की
न गावों की ना शहरों की
न शिक्षित की ना अशिक्षित की
समस्या है ये हर इक की
आगे आओ कुछ निर्णय लो
दृढ़ निश्चय का तुम परिचय दो
देर न करो देर न करो
कुछ कम तो करो ये आबादी ||



पंचायत हो या विश्व मंच
"डी.एम." हो या फिर हो "पी.एम."
सबको आवाज़ उठानी होगी
कुछ नए कानून बनाने होंगे
ये एक समस्या जननी है
कई अन्य जघन्य समस्याओं की
सब एकजुट होकर आगे आओ
इसे बढ़ने मत दो बढ़ने मत दो
कुछ कम तो करो ये आबादी ||



-विनय 'विनोद' द्वारा रचित

Monday, September 7, 2009

About ME

अब मैं क्या बता दूं अपने बारे में जो आपको पता नहीं मेरी ज़िन्दगी कोई अनछुई किताब तो नहीं फिर भी हैं कुछ पन्ने जिनका सबको पता नहीं कुछ अच्छे कुछ दुःख देने वाले जिनको उजागर करने का मेरा अभी कोई विचार नहीं हर पल खुद को बेहतर बनाने की तलब हर वक़्त रहती है ये बात और है कि कोई कमी हर वक़्त रहती है सीधा सच्चा बनने की एक चाह रहती है ये आसन सी लगने वाली बात भी परेशान कर जाती है ये चाह भी एक चाह बन कर रह जाती है हर पल कुछ नया सीखने की आस रहती है लेकिन जाने क्यूँ ये भी एक अनबुझी प्यास बन कर रह जाती है हर रिश्ते में कुछ नए रंग भरने की ख्वाहिश रहती है मगर फिर वही जब मौका मिलता है कुछ न कुछ कमी रह जाती है हर पल को पूरा जीने में भरोसा रखते हैं काफी कुछ याद रहता है लेकिन हर पल इसी बात को भूल जाते हैं कुछ कर सकें अपने चाहने वालों के लिए ऐसा अरमान है करें हम पर भी गर्व ज़माने वाले कुछ ऐसा कर गुजरने का हमेश से प्रयास है बातें और भी हैं हमारे बारे में जिन्हें जाहिर नहीं कर सकते यूँ पब्लिक में हो रूचि तो मिलें प्राइवेट में अलग है मज़ा यूँ एक दूसरे को जानने में || - विनय 'विनोद' द्वारा रचित